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कविता

तुम्हारी आँखें

प्रेमशंकर शुक्ल


तुम्हारी आँखों में
विश्वास धीरज और करुणा से मिला
देह-जल है

उनके नीचे का स्याह भाग
बार-बार क्षमा के बैठने से स्याह पड़ा है।

तुम्हारी आँखें
हमारे अपने दो क्षितिज हैं
जिनमें हम अक्सर आया-जाया करते हैं

इन आँखों से ही
तुम मेरी हर हरकत को
ताड़ती हो
फिर भी -
तुम हारती हो
और जीत -
मेरे छल की ही होती है।
 


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